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इतिहास

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

मल्लीताल, नैनीताल
तल्लीताल, नैनीताल

‘स्कन्द पुराण’ के ‘मानस खण्ड’ में नैनीताल को त्रिऋषि सरोवर अर्थात तीन साधुवों अत्रि, पुलस्क तथा पुलक की भूमि के रूप में दर्शाया गया है । मान्यता है कि यह तीनों ऋषि यहां पर तपस्या करने आये थे, परंतु उन्हें यहां पर उन्हें पीने का पानी नहीं मिला । अतः प्यास मिटाने हेतु वे अपने तप के बल पर तिब्बत स्थित पवित्र मानसरोवर झील के जल को साइफन द्वारा यहांं पर लाये  ।

दूसरे महत्वपूर्ण पौराणिक संदर्भ के अनुसार नैनीताल ’64 शक्तिपीठों’ में से एक है ।  इन शक्ति पीठों का निर्माण सती के विभिन्न अंगो के गिरने से हुआ है जब भगवान शिव सती को जली हुई अवस्था में ले जा रहे थे  । मान्यता है  कि इस स्थान पर सती की बायीं ऑंंख (नैन) गिरी थी जिसने नैनीताल के संरक्षक देवता का रूप लिया । इसीलिये इसका  नाम नैन-ताल पडा जिसे बाद में नैनीताल के नाम से जाना जाने लगा । इस तालाब केे उत्तरी छोर पर नैना देवी का मंदिर है, जहॉ पर देवी शक्ति की पूजा होती है ।

ब्रिटिश काल

अंग्रेजों ने कुमायूं एवं गढवाल पर सन् 1815 में कब्जा किया । अंग्रेजों के आधिपत्य के पश्चात श्री ई. गर्डिन को 8 मई 1815 को  कुमाऊं मण्डल के आयुक्त के रूप में नियुक्त किया गया। 1817 में कुमायूं के दूसरे आयुक्त श्री जी.जे. ट्रेल ने कुमायूं के दूसरे राजस्व निपटान का संचालन किया था । श्री ट्रेल नैनीताल की यात्रा करने वाले पहले यूरोपीय थे, लेकिन उन्होंने इस जगह की धार्मिक पवित्रता को देखते हुए अपनी यात्रा को ज्यादा प्रचारित नहीं किया ।

सन् 1839 ई. में एक अंग्रेज व्यापारी पी. बैरन थे। वह रोजा, जिला शाहजहाँपुर में चीनी का व्यापार करते थे। इसी पी. बैरन नाम के अंग्रेज को पर्वतीय अंचल में घूमने का अत्यन्त शौक था। केदारनाथ और बद्रीनाथ की यात्रा करने के बाद यह उत्साही युवक अंग्रेज कुमाऊँ की मखमली धरती की ओर बढ़ता चला गया। एक बार खैरना नाम के स्थान पर यह अंग्रेज युवक अपने मित्र कैप्टन ठेलर के साथ ठहरा हुआ था। प्राकृतिक दृश्यों को देखने का इन्हें बहुत शौक था। उन्होंने एक स्थानीय व्यक्ति से जब ‘शेर का डाण्डा’ इलाके की जानकारी प्राप्त की तो उन्हें बताया गया कि सामने जो पर्वत हे, उसको ही ‘शेर का डाण्डा’ कहते हैं और वहीं पर्वत के पीछे एक सुन्दर ताल भी है। बैरन ने उस व्यक्ति से ताल तक पहुँचने का रास्ता पूछा, परन्तु घनघोर जंगल होने के कारण और जंगली पशुओं के डर से वह व्यक्ति तैयार न हुआ। परन्तु, विकट पर्वतारोही बैरन पीछे हटने वाले व्यक्ति नहीं थे। गाँव के कुछ लोगों की सहायता से पी. बैरन ने ‘शेर का डाण्डा’ (2360 मी.) को पार कर नैनीताल की झील तक पहुँचने का सफल प्रयास किया। इस क्षेत्र में पहुँचकर और यहाँ की सुन्दरता देखकर पी. बैरन मन्त्रुमुग्ध हो गये। उन्होंने उसी दिन तय कर ड़ाला कि वे अब रोजा, शाहजहाँपुर की गर्मी को छोड़कर नैनीताल की इन आबादियों को ही आबाद करेंगे।

फ्लैट्स, नैनीताल
राजभवन, नैनीताल

पी. बैरन ‘पिलग्रिम’ के नाम से अपने यात्रा – विवरण अनेक अखबारों को भेजते रहते थे। बद्रीनाथ, केदारनाथ की यात्रा का वर्णन भी उन्होंने बहुत सुन्दर शब्दों में लिखा था। सन् 1841 की 24 नवम्बर को, कलकत्ता के ‘इंगलिश मैन’ नामक अखबार में पहले – पहले नैनीताल के ताल की खोज खबर छपी थी। बाद में आगरा अखबार में भी इस बारे में पूरी जानकारी दी गयी थी। सन् 1844 में किताब के रुप में इस स्थान का विवरण पहली बार प्रकाश में आया था। बैरन साहब नैनीताल के इस अंचल के सौन्दर्य से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने सारे इलाके को खरीदन का निश्चय कर लिया। पी बैरन ने उस लाके के थोकदार से स्वयं बातचीत की कि वे इस सारे इलाके को उन्हें बेच दें।

पहले तो थोकदार नूर सिंह तैयार हो गये थे, परन्तु बाद में उन्होंने इस क्षेत्र को बेचने से मना कर दिया। बैरन इस अंचल से इतने प्रभावित थे कि वह हर कीमत पर नैनीताल के इस सारे इलाके को अपने कब्जे में कर, एक सुन्दर नगर बसाने की योजना बना चुके थे। जब थोकदार नूरसिंह इस इलाके को बेचने से मना करने लगे तो एक दिन बैरन साहब अपनी किश्ती में बिठाकर नूरसिंह को नैनीताल के ताल में घुमाने के लिए ले गये। और बीच ताल में ले जाकर उन्होंने नूरसिंह से कहा कि तुम इस सारे क्षेत्र को बेचने के लिए जितना रू़पया चाहो, ले लो, परन्तु यदि तुमने इस क्षेत्र को बेचने से मना कर दिया तो मैं तुमको इसी ताल में डूबो दूँगा। बैरन साहब खुद अपने विवरण में लिखते हैं कि डूबने के भय से नूरसिंह ने स्टाम्प पेपर पर दस्तखत कर दिये और बाद में बैरन की कल्पना का नगर नैनीताल बस गया। सन् 1842 ई. में सबसे पहले मजिस्ट्रेट बेटल से बैरन ने आग्रह किया था कि उन्हें किसी ठेकेदार से परिचय करा दें ताकि वे इसी वर्ष 12 बंगले नैनीताल में बनवा सकें। सन् 1842 में बैरन ने सबसे पहले पिरग्रिम नाम के कॉटेज को बनवाया था। बाद में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने इस सारे क्षेत्र को अपने अधिकार में ले लिया। सन् 1842 ई. के बाद से ही नैनीताल एक ऐसा नगर बना कि सम्पूर्ण देश में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी इसकी सुन्दरता की धाक जम गयी।

नैनीताल में पर्यटक पर उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक सन् 1847 तक यह एक लोकप्रिय पहाड़ी रिज़ॉर्ट बन गया था। 3 अक्टूबर 1850 को, नैनीताल नगर निगम का औपचारिक रूप से गठन हुआ। यह उत्तर पश्चिमी प्रान्त का दूसरा नगर बोर्ड था। इस शहर के निर्माण को गति प्रदान  करने के लिए प्रशासन ने अल्मोडा के धनी साह समुदाय को जमीन सौंप दी थी, इस शर्त पर कि वे जमीन पर घरों का निर्माण करेंगे। सन् 1862 में नैनीताल उत्तरी पश्चिमी प्रान्त का ग्रीष्मकालीन मुख्यालय बन गया। गर्मियों की राजधानी बनाने के बाद शहर में शानदार बंगलों के विकास और विपणन क्षेत्रों, विश्रामगृहों, मनोरंजन केंद्रों, क्लब आदि जैसी सुविधाओं के निर्माण के साथ सचिवालय और अन्य प्रशासनिक इकाइयों का निर्माण हुआ । यह अंग्रेजों  के लिए शिक्षा का एक महत्वपूर्ण केंद्र भी बन गया, जो अपने बच्चों को बेहतर हवा में और मैदानी इलाकों की असुविधाओं से दूर शिक्षित करना चाहते थे।

आजादी के पश्चात उत्तर प्रदेश के गवर्नर का ग्रीष्मकालीन निवास नैनीताल मेंं ही हुआ करता था। छः मास के लिए उत्तर प्रदेश के सभी सचिवालय नैनीताल जाते थे। अभी भी उत्तराखण्ड का राजभवन एवं उच्च न्यायालय नैनीताल में स्थित है ।